मंज़िल से पहले (Manjil Se Pehle)

a boy looking at the sea appearing thoughtful

थी जो आग मुझमे,
जलती थी जो मेरे अंदर,
वजह थी वह हर खुशी की,
हर सपना उससे जगमगाता था,
कहती थी हसरत, कुछ हसीन है मंज़िल मेरी,
कुछ अलग सी तकदीर है मेरी,

उस मोड़ से दूर कहीं एक राह बहुत लंबी है,
जहाँ है थोड़ी यादें, लम्हों की कमी है,
डर लगता है की ये आग बीच राह में ही बुझ ना जाए,
जीतने की ये हसरत कहीं ऐसे ही सुख ना जाए,
हर बीता हुआ दिन कुछ और साँसे खर्च कर जाता है,
कुछ चेहरे, कुछ शिकवे बेवजह दे जाता है,



कदम चलता हूँ हज़ार मगर पर क्यूँ वहीं खड़ा हूँ मैं,
जितना समझुँ में खुद को उतना उलझता जाता हूँ मैं,
आँखें बंद करूँ तो दम सा घुट जाता है,
पर खुली आँखों से भी अंधेरा दूर कहाँ जाता है,
कभी कोशिश करता हूँ किसी को हँसाने की,
पर ये सोचकर ही हँसी बिखर जाती है की यह कोशिश कितनी झूठी है,
जब खुद ही दम तोड़ चुके है अरमान,
तो फिर मंज़िल से क्यूँ ये दूरी है,

हर जाती हुई शाम मुझे मेरे सपनों से दूर कर देती है,
और हर सुबह मेरे हसीन सपनो को तोड़ देती है,
धीरे धीरे ये आग बुझने लगी है,
पर जब देखता हूँ तो मेरी कहानी अब भी अधूरी सी है,
और जैसे कुछ कहानियाँ अक्सर ख़त्म हो जाती है मंज़िल से पहले,
बस एक डर है कहीं ये आग ना बुझ जाए मेरे जलने से पहले…
-N2S
20012012

Befikri

lonely-boy
“हसरतों के समुंदर से जब किनारों को खोजता हूँ,
ना जाने क्यूँ और डूबता चला जाता हूँ मैं…”

सफेद धुएँ सा उठता हुआ कहीं खो जाता हूँ,
फूलों पर ओस की बूँदों सा लिपट जाता हूँ मैं,
खाली पन्नों पर खींचने को बेताब,
चंद शब्दों में ही ठहर जाता हूँ मैं,
हाथों की लकीरों में ना जाने क्या मंज़िल लिखी होगी,
फिलहाल तो वादियों,रास्तों, दरखतों में ही पनाह लेता हूँ मैं,
गाड़ी की रफ़्तार से जब झुलफें आँखों पर आती हैं,
बाहें फैलाकर पंछीयों सा उड़ जाना चाहता हूँ मैं,

समुंदर किनारे शाम को अलविदा कहता हूँ,
रेत में नंगे बदन लेटकर तारे गिनता हूँ मैं,
आवारगी है दिन में, रातें बेचैन फिरती हैं सड़कों पर,
कभी चाई की चुस्कियों में तो, कभी शराबी बन जाता हूँ मैं,

यारियाँ पहली सी ना रही,
जो थी नदियों सी शरारती,
अब वे बादल की बूदों की तरह कभी कभार ही बरसती,
उन्ही चंद बूँदों में बिनमौसम भीग लेता हूँ मैं,



हर खूबसूरत चेहरा है अपना, पर हम किसी के नहीं,
अब पहला सा आवारा दिल लिए फिरता नहीं,
जिनसे था प्यार कभी जहानों में,
एक-एक कर उनकी डोलियों को कंधा दे आया हूँ मैं,
कभी एक खलिश सिने में उठ ही जाती है की…
किसी को इंतेज़ार नही मेरा, फिर भी ना जाने किसकी राह तकता हूँ मैं,

बचपन के खेल मीठी यादें बन गये,
जवानी हर दिन एक नया इम्तिहान ले आती है,
आज बसतों में सपने कम उम्मीदें ज़्यादा हैं,
हसरतों के समुंदर से जब किनारों को खोजता हूँ,
ना जाने क्यूँ और डूबता चला जाता हूँ मैं,

शाम की साग पर भले कोई मेरा इंतेज़ार ना करे,
और ना जाने किसकी बाहों में ये सफ़र ख़त्म हो,
तब तलक बेफिक्री में तन्हा चलता जाता हूँ मैं…

-N2S